जब मैंने तत्त्वविवेचनी पढ़ी तब कुछ नोट्स लिए थे, उनको यहाँ उद्धृत कर रहा हूँ।
गीता में जितनी बातें कही गयी हैं, वे सभी अक्षरशः यथार्थ हैं; सत्यस्वरूप भगवान् की वाणी में रोचकता की कल्पना करना उसका निरादर करना है।
गीता के अनुसार शास्त्रविहित कर्म ज्ञाननिष्ठा और योगनिष्ठा दोनों ही दृष्टियों से हो सकते हैं। ज्ञाननिष्ठा में भी कर्म का विरोध नहीं है। और योगनिष्ठा में तो कर्मका संपादन ही साधन माना गया है।
ज्ञानका अर्थ गीता में केवल ज्ञानयोग ही नहीं है ; फलस्वरूप ज्ञान जो सब प्रकारके साधनों का फल है – ज्ञाननिष्ठा और योगनिष्ठा दोनोंका फल है और जिसे यथार्थ ज्ञान और तत्त्वज्ञान भी कहते हैं उसे भी “ज्ञान” शब्द से ही कहा जाता है।
पहले किसी दूसरे उद्देश्य से किए हुए कर्मोंको पीछे से भगवानके अर्पण कर देना, कर्म करते करते बीचमें ही भगवानके अर्पण कर देना – यह भी “भगवदर्पण” का ही प्रकार है, यह भगवदर्पणकी प्रारम्भिक सीढ़ी है।
सांख्ययोग और कर्मयोग इन दोनों साधनों का संपादन एक काल में एक हीं पुरुष के द्वारा नहीं किया जा सकता। कर्मयोगी अपनेको कर्मों का करता मानता है। सांख्ययोगी करता नहीं मानता। कर्मयोगी अपने कर्मोंको भगवानके अर्पण करता है।
यद्दपि उत्तम आचरण एवं अंतःकरण का उत्तम भाव दोनों ही को गीता ने कल्याण का साधन मन है, किन्तु प्रधानता भावको ही दी है। गीतके अनुसार सकामभाव से की हुई यज्ञ, दान, तप, सेवा, पूजा, आदि ऊँची-से-ऊँची क्रियाकी अपेक्षा निष्कामभावसे की हुई युद्ध, व्यापार, खेती, शिल्प, एवं, सेवा आदि छोटी-से-छोटी क्रिया भी मुक्तिदायक होनेके कारण श्रेष्ठ है।
गीता और सांख्य (कापिल ) में इन शब्दों में अंतर है :
- ईश्वर गीतामें ईश्वर को हिज रूप में माना है, उस रूप में सांख्यदर्शन नहीं मानता।
- प्रकृति कापिल सांख्य की प्रकृति तीनो गुणों की साम्यवस्था हैल परन्तु गीता की प्रकृति तीनो गुणों के कारण है, गुण उसके कार्य हैं। सांख्य ने प्रकृतिको अनादि एवं नित्य माना है; गीता ने भी प्रकृति को अनादि तो मन है, परन्तु नित्य नहीं।
- पुरुष कापिल सांख्य के मटमे पुरुष नाना हैं; परन्तु गीता का सांख्य पुरुषको एक ही मानता है।
- मुक्ति सांख्य के मत में दुखोंकी आत्यंतिक निवृति ही मुक्ति का स्वरुप है; गीता की मुक्ति में दुखोंकी आत्यंतिक निवृति तो है ही, किन्तु साथ-ही-साथ परमानन्दस्वरूप परमात्मा की प्राप्ति भी है।
गीता और पातंजलयोगमें इन शब्दों में अंतर है :
- योग पातंजलयोगमें योगका अर्थ है ‘चित्तवृत्ति का निरोध’। परन्तु गीता में प्रकरणानुसार योग शव्द का विभिन्न अर्थों में प्रयोग हुआ है।
भेदोपासक तथा अभेदोपासक दोनोंके द्वारा प्रापणीय वस्तु, यथार्थ तत्त्व, एक ही है; उसीको कहीं परम शांति और शाश्वत स्थान के नाम से कहा है, कही परम धाम के नामसे, कही संसिद्धि के नाम से, कही अनन्य पद के नाम से, कही ब्रह्मनिर्वाण के नाम से और कही निर्वाणपरमां शांतिके नाम से। इनके अतिरिक्त और भी कई शब्द गीतमें उस अंतिम फल को व्यक्त करनेके लिए प्रयुक्त होते हैं, परन्तु वह वास्तु सभी साधनों का फल है – इसके अतिरिक्त इसके विषय में कुछ भी कहा नहीं जा सकता। वह वाणी का अविषय है। जिसे वह विषय प्राप्त हो गयी है, वही उसे जानता है; परन्तु वह बह उसका वर्णन नहीं कर सकता, उपर्युक्त शब्दों तथा इसीप्रकारके अन्य शब्दों द्वारा शाखाचन्द्रन्यायसे उसका लक्ष्यमात्र करा सकता है। अतः सब साधनोंका फलरूप जो परम वस्तु तत्त्व है वह एक है, यही बात युक्तिसंगत है।
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