जब मैंने ज्ञानेश्वरी पढ़ी तब कुछ नोट्स लिए थे, उनको यहाँ उद्धृत कर रहा हूँ।
जबतक शरीर का आश्रय बना हुआ है, तबतक कर्मों का परित्याग हो हीं नहीं सकता। कर्म परतंत्र होने के कारण वे शरीरों में सत्त्ववादी गुणों के अनुसार पैदा होते हैं। देखो हम रथ पर कितना भी स्थिर क्यों न बैठें, पर फिर भी परतंत्रता के कारण हम हिलते डुलते हीं रहते हैं अर्थात सहज ही प्रवास होता है।
जलमें रहने वाला प्राणी जिस क्षण जल के बाहर निकले उस क्षण ही जान लेना चाहिए की अब उसकी मृत्यु आ गयी है। इसी प्रकार किसी भी मनुष्यको कभी भी स्वधर्म त्याग नहीं करना चाहिए।
स्तनपान करना भी जिस बच्चे के लिए कष्टकर हो उसे पकवान कैसे खिलाया जा सकता है? ठीक वैसे ही जिन मनुष्योंमें केवल कर्म करने की योग्यता हो, उन्हें कभी प्रहसन में भी कर्मों को छोड़ने की शिक्षा नहीं देनी चाहिए।
जैसे नौका विहार करने वाला मनुष्य नदी के तट पर स्तिथ वृक्षोंको बड़े वेग से दौड़ते हुए देखता है, और जब वह ठीक से विचार करता है, तब कहता है की यह सब वृक्ष अपने अपने जगह पर ही स्थिर हैं, वैसे ही जो यह जानता है की मेरे कर्मोंका आचरण आत्मस्वरूप की दृष्टि से एकदम मिथ्या है और जो अपना मूल स्वरुप पहचान लेता है, वही सच्चा निष्कर्मा है।
जिसकी ऐसी समबुद्धि हो गयी है की “कर्म” का अर्थ हीं “ब्रह्म” है, उसके लिए कर्म करना भी निष्कर्म होने के ही सदृश है।
कभी अलग-अलग दीपकों के प्रकाश में कोई अंतर दृष्टिगोचर होता है? जिन्होंने एक हीं मार्ग का आचरण करके स्वानुभव से आत्मरूपका तत्त्व भलीभांति समझ लिया है, वे सन्यास और योग इन दोनों में कोई अंतर नहीं मानते।
सर्पके फण की छाया चूहेके लिए कहांतक शांति देनेवाली हो सकती है? विषयोंके सेवनमें जो सुख प्रतीत होता है, वस्तुतः वह आरम्भ से अंततक केवल दुःख ही दुःख है। जो व्यक्ति विरक्त होते हैं, वे इन विषयों को विष समझकर छोड़ देते हैं।
जिस प्रकार विषयों का अतिशय सेवन नहीं करना चाहिए उसी प्रकार उनके साथ वैर भाव भी नहीं करना चाहिए।
…ऐसे मन को किस प्रकार से रोका जाय? यदि महावायु को स्थिर रहने के लिए कहा जाय तो क्या वह कभी शांत और स्थिर हो सकता है?
… इस मन की एक अच्छी आदत यह है की इसे जिस चीज़ में रस मिल जाता है, फिर उसीका इसे चस्का लग जाता है। इसीलिए इसे कुतुहलसे आत्मसुख का चस्का लगाना चाहिए।
… इस प्रकार अभ्यास करने की शक्ति यदि तुम्हारे शरीरमें न हो तो फिर जिस जगह पर और जैसे हो, उसी जगह पर और वैसे ही रहो। इन्द्रियोंका अवरोध मत करो, भोगोंका त्याग मत करो और अपनी जाती का अभिमान भी मत त्यागो। अपने कुल-धर्म का पालन करते चलो तथा विधि-निषेध का ध्यान रखो। इस प्रकार का आचरण करने की तुम्हे पूरी स्वतंत्रता है। पर मनसा-वाचा और शरीरसे जो-जो कर्म हों, उनके विषय में तुम कभी यह मत कहना की ये कर्म मैंने किये हैं। करना और न करना तो केवल परमात्मा ही जानता है जो इस विश्व का संचालक है। यह कर्म न्यून है और यह कर्म पूर्ण है, इस बात का विचार तुम अपने मन में कभी मत करो। माली जिधर जल ले जाता है, वह चुपचाप उधर हीं चला जाता है। उसी प्रकार तुम भी अपने कर्तृत्व का अभिमान त्याग कर शांत रहो। कहनेका आशय यह है की प्रवृत्ति और निवृत्ति के बोझ अपने चित्तपर मत लादो, अपनी चित्तवृत्ति अनवरत मुझमे हीं स्थिर रखो। हे सुभट! अब तुम्ही बतलाओ की क्या रथ कभी इस को सोचता है की यह मार्ग सीधा है अथवा टेढ़ा? इस प्रकार स्वयंको पृथक रखते हुए जो जो कर्म होते चलें, उनके बारे में न तो कभी यह कहो की ये न्यून हैं, और न यह कहो की ये बहुत हैं तथा शांतिपूर्वक वे समस्त कर्म मुझे समर्पित करते चलो।
कायेन वाचा मनसेंद्रियैर्वा बुद्ध्यात्मना वा प्रकृतिस्वभावात्
करोमि यद्यत् सकलं परस्मै नारायणायेति समर्पयामि
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