जब मैंने श्री गुरु गीता पढ़ी तब कुछ नोट्स लिए थे, उनको यहाँ उद्धृत कर रहा हूँ।
वेदशास्त्र, सभी पुराण-उपपुराण आदि और इतिहास-रामायण, महाभारत, आख्यान-उपाख्यान आदि, स्मृतिशास्त्र, मन्त्र-यन्त्र उच्चाटन आदि की प्रतिपादक विद्याएँ, शैव-शाक्त आदि नाना प्रकार के आगम और अन्य विविध शास्त्र -ये सब नाना प्रकार की भ्रान्तियों में उलझे हुए व्यक्तियों को अधोगति में ले जाने के साधनमात्र हैं। इसका अभिप्राय यह है कि अपने भ्रान्त चित्त के वशीभूत व्यक्ति यदि इन शास्त्रों का दुरुपयोग करते हैं, तो निश्चित ही वे पतन के मार्ग की ओर अग्रसर होते हैं। अतः व्यक्ति को गुरु की कृपा प्राप्त कर उसके द्वारा उपदिष्ट मार्ग से ही निर्व्याज मन से इनका अनुसरण करना चाहिये।
यज्ञ-याग आदि, व्रत-नियम आदि, तप, दान, जप, तीर्थाटन आदिक्रियामा अनुष्ठान वे मूढ़ मनुष्य ही करते हैं, जो कि गुरुतत्त्व को ठीक से समझ नहीं पाते। इसका अभिप्राय यह है कि गुरुतत्त्व को जाने बिना किया गया कोई भी अनुष्ठान कभी सफल नहीं हो सकता।
यह गुरु अपनी निश्चयात्मिका बुद्धि से भिन्न नहीं है, अर्थात् गुरु की कृपा से ही मनुष्य की बुद्धि सत्कार्य में प्रवृत्त होती है, अत: इस तरह की बुद्धि गुरु का अपना ही स्वरूप है। यह बात पूरी तरह से सही है, इसमें किसी भी प्रकार का कोई संशय नहीं है। अत: निर्मल बुद्धि को देने वाले इस गुरु की प्राप्ति के लिये ही साधक को सतत प्रयत्न करना चाहिये।
ब्रह्मज्ञान गुरु के मुख में स्थित है। यह गुरु के प्रसाद से ही, गुरु के प्रसन्न होने पर ही मिल पाता है। इसलिये साधक व्यक्ति को गुरु के चरणों का ध्यान उसी प्रकार करना चाहिये, जैसे कि पतिव्रता कुलीन स्त्री अपने पति की सेवा में सर्वतोभावेन सदा लगी रहती है।
अखण्ड मण्डल के आकार वाला यह सारा चराचरात्मक संसार, अर्थात् यह सारा ब्रह्माण्ड जिस ब्रह्म पद से व्याप्त है, उस ब्रह्म पद का साक्षात्कार कराने वाले गुरुदेव के प्रति हम श्रद्धापूर्वक नमन करते हैं।
अपने ज्ञान के प्रभाव से अनेक जन्मों से, अर्थात् जन्म-जन्मान्तर से प्राप्त सभी प्रकार के कर्मों को भस्म कर देने वाले श्रीगुरुचरणों को हम नमस्कार करते हैं।
प्रात:काल मस्तक में विद्यमान श्वेत सहस्रार कमल में विराजमान दो नेत्र और दो भुजाओं वाले मनुष्य रूप धारी गुरु का नमन करते हुए नामग्रहणपूर्वक स्मरण करना चाहिये। ये गुरुदेव वर और अभय मुद्रा से सुशोभित हैं, अर्थात् सभी प्राणियों का मनोरथ पूरा करने की तथा अभय दान करने की सामर्थ्य इनमें है।
ऊपर वर्णित स्वरूप वाले गुरु का ध्यान करने से ज्ञान अपने आप उत्पन्न हो जाता है। इस लिये सद्गुरु के प्रसाद से मैं मुक्त हो गया हूँ, ऐसी भावना मुमुक्षु को करनी चाहिये।
हे महादेवि! मेरे द्वारा दिये गये इस सारे उपदेश को सुनने के बाद भी जो व्यक्ति गुरु की निन्दा करता है, वह जब तक इस धरती पर सूर्य और चन्द्रमा विराजमान हैं, तब तक के लिये घोर नरक में निवास करता है। जिस क्षण तक यह देह स्थित है, तब तक गुरु का स्मरण अवश्य करते रहना चाहिये। यदि व्यक्ति स्वच्छन्दाचारी हो जाय, अर्थात् अवधूतावस्था में पहुँच जाय, तब भी गुरुसेवा का लोप कभी नहीं करना चाहिये। इसका अभिप्राय यह है कि अवधूतावस्था या सिद्धावस्था में पहुँच जाने पर व्यक्ति के लिये कोई कर्तव्य कर्म नहीं बचा रहता, अर्थात् वह सभी प्रकार के कर्मकाण्डों से ऊपर उठ जाता है। ऐसी अवस्था में भी उस अवधूत सिद्ध को गुरु का स्मरण तो अवश्य ही करना चाहिये।
Comments
There are currently no comments on this article.
Comment