हिन्दू धर्म और भारत-गौरव गान स्वामी विवेकानन्द का प्रथम व्याख्यान विश्व-धर्म-महासम्मेलन में ११ सितम्बर, १८९३ को हुआ था। स्वामीजी द्वारा श्रोताओं को ‘अमेरिकावासी बहनो और भाइयो’ के सम्बोधन करते ही सभागृह तालियों की गड़गड़ाहट से गूँज उठा और लगातार ३ मिनट तक तालियाँ बजती रहीं। स्वामीजी के अन्त:करण से उद्भूत उन शब्दों ने सबको हार्दिक ऐक्य की अनुभूति करा दी । इस एकत्व बोध से सबने स्वामीजी के साथ अपनत्व का बोध किया, जिसकी अभिव्यक्ति बहुत देर तक करतल ध्वनि से होती रही। यद्यपि इस दिन की व्याख्यान-अवधि बहुत कम थी, किन्तु स्वामीजी के अल्पावधि व्याख्यान ने उपस्थित जनता के बहुत से भ्रम दूर कर दिये। हिन्दू धर्म और भारत के बारे में कुछ लोग कुप्रचार करते थे। स्वामीजी ने सर्वप्रथम हिन्दू धर्म और भारत की उदारता और महानता का उद्घोष किया – “मैं एक ऐसे धर्म का अनुयायी होने में गर्व का अनुभव करता हूँ, जिसने संसार को सहिष्णुता तथा सार्वभौम स्वीकृति, दोनों की ही शिक्षा दी है। हमलोग सब धर्मों के प्रति केवल सहिष्णुता में ही विश्वास नहीं करते, वरन् समस्त धर्मों को सच्चा मानकर स्वीकार करते हैं। मुझे एक ऐसे देश का व्यक्ति होने का अभिमान है, जिसने इस पृथ्वी के समस्त धर्मों और देशों के उत्पीड़ितों और शरर्णािथयों को आश्रय दिया है। मुझे आपको बतलाते हुये यह गर्व होता है कि जिस वर्ष यहूदियों का पवित्र मन्दिर रोमन जाति के अत्याचार से धूल में मिला दिया गया, उसी वर्ष कुछ अभिजात यहूदी आश्रय लेने दक्षिण भारत आये और हमारी जाति ने उन्हें छाती से लगाकर शरण दी । ऐसे धर्म का अनुयायी होने में मैं गर्व का अनुभव करता हूँ, जिसने पारसी जाति की रक्षा की और उसका पालन अभी तक कर रहा है।” स्वामीजी ने शिवमहिम्नस्तोत्रम् का एक श्लोक सुनाते हुये कहा –
रुचीनां वैचित्र्यादृजुकुटिलनानापथजुषाम् ।
नृणामेको गम्यस्त्वमसि पयसामर्णव इव ।।
जैसे विभिन्न नदियाँ भिन्न-भिन्न स्रोतों से निकलकर समुद्र में मिल जाती हैं, उसी प्रकार हे प्रभो ! भिन्न-भिन्न रुचि के अनुसार विभिन्न टेढ़े-मेढ़े अथवा सीधे रास्ते से जानेवाले लोग अन्त में तुझमें ही आकर मिल जाते हैं।
स्वामीजी ने श्रीमद्भगवदगीता का उद्धरण देते हुये कहा –
ये यथा मां प्रपद्यन्ते तांस्तथैव भजाम्यहम् ।
मम वत्र्मानुवर्तन्ते मनुष्या: पार्थ सर्वश: ।।
जो कोई मेरी ओर आता है, चाहे वह किसी प्रकार से हो, मैं उसे प्राप्त होता हूँ। लोग भिन्न-भिन्न मार्ग से प्रयत्न करते हुये अन्त में मेरी ही ओर आते हैं।
धार्मिक मतभेदों का खण्डन
स्वामीजी ने १५ सितम्बर, १८९३ के व्याख्यान में परस्पर धार्मिक मतभेद को दूर करने हेतु एक मेढक की कहानी सुनाई थी, जिसका सारांश प्रस्तुत है –
एक कुएँ में बहुत समय से एक मेढक रहता था। वह वहीं जन्मा और बड़ा हुआ। वह खा-पीकर मोटा हो गया। एक दिन एक समुद्री मेढक उस कूएँ में गिर गया। उसे देखकर वहाँ के मेढक ने पूछा – “तुम कहाँ से आये हो?” “मैं समुद्र से आया हूँ।” समुद्री मेढक ने उत्तर दिया। “समुद्र! कितना बड़ा है वह? क्या वह मेरे कुएँ जितना बड़ा है?” इतना कहकर उसने कुएँ में एक किनारे से दूसरे किनारे तक छलाँग मारी। समुद्री मेढक ने कहा – “मेरे मित्र! समुद्र की तुलना इस छोटे-से कुएँ से कैसे कर सकते हो?” तब उस कुएँ के मेढक ने एक दूसरी छलांग मारी और पूछा, “तो क्या तुम्हारा समुद्र इतना बड़ा है?” समुद्री मेढक ने कहा, “तुम कैसी मूर्खतापूर्ण बातें कर रहे हो! क्या समुद्र की तुलना तुम्हारे कुएँ से हो सकती है?” तब कुएँ के मेढक ने कहा, “‘जा, जा ! मेरे कुएँ से बढ़कर दूसरा कुछ हो ही नहीं सकता । संसार में इससे बड़ा दूसरा कुछ नहीं है! झूठा कहीं का! अरे, इसे पकड़कर बाहर निकाल दो!” स्वामीजी ने इस कहानी से समझाया कि हिन्दू, ईसाई, मुसलमान आदि अपने छोटे-से कुएँ में बैठकर यही समझते हैं कि उनका कुँआ ही सारा संसार है। अत: उन्होंने सभी धर्मावलम्बियों को अपनी संकीर्णता को छोड़कर समुद्र सदृश उदार होकर सबसे प्रेम करने का सन्देश दिया।
मानव के दिव्य स्वरूप की उद्घोषणा
१९ सितम्बर, १८९३ को स्वामीजी ने ‘हिन्दू धर्म पर निबन्ध’ पढ़ा था। उसमें स्वामीजी मानव के मूल दिव्य स्वरूप और स्वाभिमान को जाग्रत करते हुये कहते हैं – “मनुष्य को पापी कहना ही पाप है, वह मानव स्वरूप पर घोर लांछन है। उठो! आओ! हे सिंहो! इस मिथ्या भ्रम को झटककर दूर फेंक दो कि तुम भेड़ हो। तुम तो अमर, नित्य, आनन्दमय, मुक्त आत्मा हो! तुम जड़ नहीं हो, शरीर नहीं हो, जड़ तुम्हारा दास है, तुम जड़ के दास नहीं हो।”
मूर्तिपूजा का वैशिष्ट्य
“भारतवर्ष में मूर्तिपूजा निन्दनीय नहीं है। वह अविकसित मन के लिये उच्च आध्यात्मिक भाव को ग्रहण करने का उपाय है। …हिन्दू की दृष्टि में मनुष्य भ्रम से सत्य की ओर नहीं, वह सत्य से सत्य की ओर, निम्न श्रेणी के सत्य से उच्च श्रेणी के सत्य की ओर जा रहा है।”
२० सितम्बर, १८९३ के व्याख्यान में स्वामीजी ने कहा कि भारत को धर्म की आवश्यकता नहीं है, उनके पास धर्म पर्याप्त है। २६ सितम्बर को स्वामीजी ने बौद्ध धर्म पर व्याख्यान दिया। उन्होंने कहा कि शाक्य मुनि ध्वंस करने नहीं आये थे, वे हिन्दू धर्म की पूर्णता के सम्पादक थे, उसकी स्वाभाविक परिणति और युक्तिसंगत विकास थे। उनका हृदय विशाल था। उन्होंने वेदों में छिपे सत्य को निकालकर सम्पूर्ण संसार में विकीर्ण कर दिया। सर्वभूतों के प्रति, विशेषकर अज्ञानी तथा दीनों के प्रति अद्भुत सहानुभूति में ही तथागत का महान गौरव है। २७ सितम्बर, १८९३ के समापन अवसर पर स्वामीजी ने कहा – “ … शीघ्र ही सारे प्रतिरोधों के बावजूद प्रत्येक धर्म की पताका पर यह स्वर्णाक्षरों में लिखा होगा – ‘सहायता करो, लड़ो मत।’ ‘परभाव ग्रहण करो, परभाव का विनाश नहीं’ ‘समन्वय और शान्ति हो, मतभेद और कलह नहीं!’”
इस प्रकार स्वामीजी के शाश्वत सन्देशों ने विश्व को एक नई दिशा दी और दे रही है, जिसके कारण आज जगत उन्हें श्रद्धापूर्वक स्मरण कर रहा है।
लेखक: स्वामी प्रपत्त्यानन्द1
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