Ekvastra

महामारी COVID के दौरान गैर-सरकारी संगठनों की भूमिका

पहला पक्ष

जैसा हमने सार में बताया, चलिए महर्षि वेद व्यास जी के शरण में जाते हैं और अपनी दशा के संभावित निदान रूपी तत्व का दर्शन करते हैं! अष्टादशपुराणानां सारं व्यासेन कीर्तितम्, परोपकार: पुण्याय पापाय परपीडनम्। अठारहों पुराण के सार के रूप में महर्षि वेद व्यास जी ने कहा है की पुण्य का पर्याय परोपकार है एवं पाप का पर्याय दुःख देना है। समाज सुधारक स्वामी विवेकानन्द जी के शब्दों में भी धर्म का सार उन्होंने इसी भाव में प्रकट किया है। यह बहुत हीं सार गर्भित बात है। इस सन्देश में हमें हमारे समाज के चरित्र के दर्शन भी होते हैं ! इसी तत्व के अवलम्बन पर हमारे समाज में जगत कल्याण की प्रेरणा से काम करने वाले वैज्ञानिक, ऋषि मुनि, राजा, मंत्री, समाज सुधारक, चिकित्सक हुए हैं। इसी आधार पर गैर सरकारी संस्था का भी गठन होता है। किसी कल्याणकारी उद्देश्य से कुछ व्यक्ति ईश्वर प्रेरणा से साथ आ कर एक ध्येय के लिए कटिबद्धता धारण कर उसे समर्पित हो जाते हैं, यही एक अनजीओ के सृजन का मूल भेद है। इसी मार्ग के आचरण से निःस्वार्थ कर्म स्वाभाविकतः कार्यान्वित होते हैं और हम क्रमशः विकास के मार्ग पर अग्रसर होते हैं। श्री रामकृष्ण परमहंस ने एक छोटी कथा में बताया था की स्वयं के विकास के लिए साधारण समझदारी एवं उपकरण पूर्ण हैं, उसके लिए विशेष संज्ञान एवं दुर्लभ उपकरण नहीं चाहिए, ऐसा हीं यहाँ प्रस्तुत बात के लिए उपयुक्त है। भारतीय समाज ने प्राचीनतम काल से सबको परम उपलब्धि का अधिकारी माना है और इस सरलतम मार्ग का प्रतिपादन किया है। ईसाई मत के अवलम्बियों के लिए भी प्रभु यीशु ने इसी मार्ग का प्रतिपादन किया है, मनुष्य मात्र की निःस्वार्थ सेवा!

उपर्युक्त बातों से यह स्पष्ट होता है की जिस समाज से, जिस समाज में, गैर सरकारी संस्था का गठन हुआ उसका चरित्र उसी समाज के चरित्र पर आधारित होगा। स्वधर्म उसी पर आधारित होता है। स्वधर्म का आचरण हीं कर्तव्य है। इस तर्क से हम इस स्पष्ट निष्कर्ष पर पहुँचते हैं की हमारे समाज में सेवा भाव, निस्वार्थ सेवा भाव, मनुष्य मात्र के सेवा हेतु प्राचीनतम काल से समूह अथवा सामाजिक संगठन अथवा समकालीन अनजीओ का अस्तित्व रहा है। साधारण उदाहरण होगा उत्तर में श्री ईश्वरचंद्र विद्यासागर की समाज सुधारक संस्था और दक्षिण में श्री नारायण गुरु की समाज सुधारक संस्था।

भारत में चिंतनशील समाज सुधारकों की कभी कमी नहीं रही, पुनः पुनः हर संभावित आवश्यकता पर इस भूमि से जगत कल्याण की संकल्पना के साथ पृथक पृथक संस्था ने काम किये हैं। वसुधैव कुटुम्बकम् और सर्वे भवन्तु सुखिनः उसी का प्रत्यक्ष प्रमाण है, ऐसे उच्च विचार जो अनंत काल तक पूरे विश्व के हर संस्था का मार्ग दर्शन की क्षमता रखते हैं।

तीन और बिंदु पर ध्यान करेंगे हम, सारे अनुकरणीय संस्था समाज का होकर कार्य करते हैं, समाज से अलग होकर नहीं। वे अपने को समाज से भिन्न या विशिष्ट नहीं मानते। कितनी साधारण सी बात है, हम जिसके भागी नहीं हम उस पर प्रभाव नहीं डाल सकते! उन्होंने कभी स्वयं को समाज से श्रेष्ठ होने का दावा नहीं किया। दूसरा बिंदु है कभी भी प्रशंसा के लिए नहीं अपितु मात्र सेवा भाव से कार्य करना। यही श्रेष्ठ आचरण है, यही मुक्ति की ओर ले जाने का मार्ग है। प्रेमचन्द जी की एक कथा का स्मरण हो आया जिसमें एक नवयुवती एक तरुण संन्यासी के रूप पर मोहित होकर उससे विवाह करने का हठ करती है और वह वैरागी उससे उदासीन हीं रहता है, वह युवती उसकी कुटिया के समीप रह कर संभव सेवा करती है जैसे स्थान स्वच्छ रखना, फल फूल चुन कर रख देना। इस प्रकार कई महीनों के बाद उस तरुण ने कहा की वह उसके ध्येय निष्ठा से प्रभावित है और जानना चाहता हैं की क्या तरुणी अभी भी प्रेम से प्रेरित है? युवती ने उत्तर दिया नहीं उसे तो उससे भी अधिक शांति देने वाले तत्व की अनुभूति हो गई है — सेवा! निःस्वार्थ भाव से किये सेवा से कार्य का प्रभाव भी बढ़ता है और आत्मिक विकास भी होता है। इस क्रम और सन्दर्भ में तीसरा बिंदु यह है की संगठन अथवा संस्था के रूप में मिल कर कार्य करना। मिल कर काम करना, सामूहिक चिंतन करना, ये सब छोटे से बड़े के पहचान की यात्रा है, अपने दायरे को बढ़ाने का अभ्यास है, अपने सीमित से असीमित की यात्रा है, अनित्य से शाश्वत के परिचय की यात्रा है। इस प्रकार प्रस्तुत पक्ष में हम गैर सरकारी संस्था के अस्तित्व के कारण, प्रयोजन, दायित्व एवं लक्ष्य से परिचित होते हैं।

दूसरा पक्ष

भारत में जब प्लेग ने पहली बार १८९८ की मई में कलकत्ता में अपना पाश्विक रूप दिखाया तब स्वामी विवेकानन्द ने स्वामी सदानन्द और भगिनी निवेदिता सहित अन्य सहयोगियों के साथ पीड़ितों की मदद के लिए तुरंत राहत अभियान शुरू करना चाहा। कलकत्ता को जब्त करने वाले प्लेग महामारी ने बड़े पैमाने पर संकट और भय पैदा किया। राहत में शिविरों में पीड़ितों की मदद करना और सार्वजनिक स्वच्छता में सुधार करना शामिल था। अगले वर्ष जब कलकत्ता फिर से महामारी की चपेट में आया, तो ३१ मार्च १८९९ को एक राहत कार्यक्रम शुरू किया गया। भगिनी निवेदिता और स्वामी सदानन्द ने राहत अभियान चलाया था। वह पत्र अभी भी अनुकरणीय और वर्तमान के संकट के लिए मार्गदर्शक है। अभी के सन्दर्भ में उसका संक्षिप्त एवं मुक्त अनुवाद उद्धृत करना चाहूँगा:

  1. जब आप खुश होते हैं तो हम भी प्रसन्न होते हैं, और जब आप पीड़ित होते हैं तो हमें भी पीड़ा होती हैं। इसलिए, अत्यधिक प्रतिकूलता के इन दिनों के दौरान, हम आपके कल्याण के लिए और आपके स्वास्थ्य और महामारी के भय से बचाने के लिए एक आसान तरीके के लिए प्रार्थना कर रहे हैं।
  2. अगर वह गंभीर बीमारी – जिसके डर से उच्च और निम्न, अमीर और गरीब दोनों शहर से भाग रहे हैं – कभी भी वास्तव में हमारे बीच में आता है, तो भले ही हम आपकी सेवा करते हुए और नर्सिंग करते हुए नष्ट हो जाएं, हम खुद को भाग्यशाली समझेंगे क्योंकि आप सब हमारे स्वयं के स्वरूप हैं। जो अन्यथा सोचता है – घमंड, अंधविश्वास या अज्ञानता से – वह अनुचित करता है।
  3. हम विनम्रतापूर्वक आपसे प्रार्थना करते हैं – कृपया निराधार भय के कारण घबराएँ नहीं। भगवान पर भरोसा करें और शांति से समस्या को हल करने के लिए सबसे अच्छा साधन खोजने की कोशिश करें। अन्यथा, उन लोगों के साथ हाथ मिलाएँ जो ऐसा कर रहे हैं।
  4. आइए, हम इस झूठे भय को त्याग दें और भगवान की असीम अनुकंपा पर विश्वास करते हुए, हमारी कमर कस लें और कर्म क्षेत्र में प्रवेश करें। हमें शुद्ध और स्वच्छ जीवन जीना चाहिए।
    1. हमेशा घर और उसके परिसर, कमरे, कपड़े, बिस्तर, नाली, आदि को साफ रखें।
    2. बासी, खराब भोजन न करें; इसके बजाय ताजा और पौष्टिक भोजन लें।
    3. हमेशा मन को प्रफुल्लित रखना।
    4. डर उन लोगों को कभी नहीं छोड़ता है जो अपनी आजीविका अनैतिक तरीकों से कमाते हैं या जो दूसरों को नुकसान पहुँचाते हैं। इसलिए इस तरह के व्यवहार से दूर रहना चाहिए।
    5. महामारी की अवधि के दौरान, क्रोध से और वासना से दूर रहें – भले ही आप गृहस्थ हों।
    6. अफवाहों पर ध्यान न दें।
    7. हमारे विशेष देखभाल के तहत हमारे अस्पताल में पीड़ित मरीजों के इलाज में कोई कमी नहीं होगी पर्यवेक्षण, धर्म, जाति और महिलाओं का पूरा सम्मान रखा जायेगा।

स्वामी सदानंद के साथ, भगिनी निवेदिता ने विभिन्न सामाजिक समारोहों में और सड़कों पर भी प्लेग पर व्याख्यान देना शुरू किया। उन्होंने स्वच्छता की आवश्यकता पर जोर दिया। उन्होंने कई युवा लड़कों को “द प्लेग एंड द ड्यूटी ऑफ स्टूडेंट्स” शीर्षक के माध्यम से राहत मिशन में भाग लेने के लिए प्रेरित किया। बीडन स्ट्रीट में क्लासिक थिएटर में दिए गए इस भाषण में, भगिनी निवेदिता ने पूछा, “आप में से कितने लोग आगे आकर झोपड़ियों और बस्तियों को साफ करने में मदद करेंगे? ऐसे मामलों में, हम सभी एक साथ खड़े होते हैं और जो आदमी अपने भाई को छोड़ देता है, वह खुद ही निराशा में पड़ जाता है।” व्याख्यान समाप्त होने के बाद, कई छात्र आगे आए और ‘प्लेग सेवा’ में स्वयंसेवकों के रूप में नामांकित हुए। इस प्रकार हमें एक बहुत ही महत्त्वपूर्ण विषय भी ध्यान में आती है — जो जुड़ना चाहें उनको दायित्व देकर प्रशिक्षण देना और स्वतंत्र कार्य वृद्धि के लिए उपयोग में लाना भी गैर सरकारी संस्था की जिम्मेदारी बनती है।

प्रस्तुत पक्ष को एक साधारण वाकये के साथ समेटने का कार्य करूँगा, इस महामारी के दौरान एक युवा स्वामी विवेकानन्द के पास आकर धर्म पर चर्चा करना चाहता था तो उन्होंने उसे समझाने के असफल प्रयत्न के बाद सारांश में यह कहा की पहले उपयोगी तो बनो फिर योगी भी बन जाना!

अंतिम, प्रत्यक्ष, एवं तात्कालिक पक्ष

कोरोना वायरस महामारी के परिपेक्ष में हमें कई उत्तम उदाहरण दिखने में आये। प्रत्यक्ष को प्रमाण की आवश्यकता नहीं होती है। पहले हम सकारात्मक भूमिका निभाने वाले गैर सरकारी संस्थानों की चर्चा करेंगे और फिर इस महामारी में उदासीन रह जाने वाले संस्थाओं की चर्चा करेंगे। और आगे के मार्ग को प्रशस्त करने पर गौर करेंगे। गैर सरकारी संस्थाओं की इस महामारी के निदान में एक निश्चित भूमिका रही है इसका प्रमाण यही है की नीति आयोग के मुख्य कार्यपालक अधिकारी ने लगभग ९० हजार से अधिक एनजीओ को इस महामारी की दृष्टि से ‘संवेदनशील इलाकों’ की पहचान करने और वंचित समूह तक सेवाओं को पहुँचाने में सरकार की मदद करने का निवेदन किया है। सन्दर्भ यह बनता है की देश में सेवा संगठनों को सरकार की जटिल शासन प्रणाली के विकल्प के रूप में देखा गया है। शासन तंत्र कोई विशेष मंत्र नहीं होता कि वह हर समस्या का समाधान कर सके, इसी लिए विकास संबंधी कार्यक्रमों में आम लोगों की सहभागिता अपेक्षित है। शासन और संगठन दोनों के लक्ष्य मानव के सामुदायिक सरोकार से जुड़े हैं। प्रशासनिक तंत्र की भूमिका कायदे- कानूनों की संहिताओं से बंधी होती है जबकि स्वैच्छिक संगठन वैसे बंधन से स्वतंत्र हैं।

एनजीओ ने कई कार्य क्षेत्र में अपना योगदान दिया, जैसे वृद्ध, दिव्यांग, एवं अबोध को सेवाएँ उपलब्ध कराना अथवा सेवाएँ उपलब्ध कराने में सरकार की मदद करना। बीमारी के रोकथाम के बारे में समाज को जागरूक करने, सामाजिक दूरी के बारे में बताने, अनाथ लोगों को आश्रय देना और प्रवासी कारीगरों के लिये सामुदायिक रसोई घर स्थापित करना, इस प्रकार के कई प्रेरणादायी प्रयोग समाचारपत्र और अन्य माध्यम से हम सभी के सामने आये। मध्य- प्रदेश में एक अनूठा उदाहरण प्रस्तुत हुआ जब व्यक्तिगत स्तर पर लगभग ३५ हज़ार स्वयंसेवक अपना नाम पंजीकृत कराकर इस महामारी से बचाव के लिए किसी न किसी रूप में सरकार की मदद करने के लिए सामने आये। सरकार ने इनका सहयोग लोगों को जागरूक करने के लिए और ज़रूरतमंद को भोजन, मास्क, सैनेटाइजर आदि पहुँचाने के लिए किया। लुधियाना में भी ऐसा हीं एक कटिबद्ध एनजीओ नज़र में आया, जिसने थैलेसीमिया से पीड़ितों के लिए रक्तदान की व्यवस्था क‌र्फ्यू की स्तिथि में भी अबाधित रूप से गतिमान रखी है। हैदराबाद शहर में सेवा भारती नामक संस्था ने भी सराहनीय काम किया, प्रवासी मजदूरों की आर्थिक सहायता, भोजन की व्यवस्था और एक मित्र के समान उपयुक्त सलाह देने (layman counseling) का दायित्व निभाया। इसमें कोई संदेह हीं नहीं की गैर सरकारी संगठनों ने एक सकारात्मक योगदान दिया है। यह जानने के लिए की किस प्रकार के सुधार की सम्भावना बचती है हमें कुछ नकारात्मक उदाहरण से भी परिचित होना होगा। भारत देश में करीब 32 लाख एनजीओ हैं। इनमें से केवल 4 लाख संगठन ही ऐसे हैं, जो अपने आर्थिक व्यय पत्रक व्यवस्थित रखते हैं। उल्लेखनीय है की मध्य- प्रदेश में डेढ़ लाख से ज्यादा एनजीओ पंजीकृत हैं, किंतु केवल एक हज़ार से कम इस महामारी से लड़ाई में मदद कर रहे हैं। इसी प्रकार बोधगया में सौ से अधिक एनजीओ कार्यरत हैं लेकिन वर्तमान कठिन दौर में एनजीओ एसोसिएशन ने आगे बढ़कर मदद के लिए सहयोग नहीं दिया!

हमने प्रगतिशील सुधार की प्रक्रिया में एक उदाहरण प्रत्यक्ष हीं देखा, लोकेषणा के लोभ में कार्य कर रहे कार्यकर्ताओं को ध्यान में रखते हुए सरकार को सलाह जारी करनी पड़ी की सेवा कार्यक्रमों की फोटो, जहाँ न आवश्यक हो वहाँ न खींचे। भारत में निज भाव से दीन- हीन मानवों की सेवा एक सनातन परंपरा रही है। और इस कार्य को प्रशस्त करने के लिए अनजीओ को अपनी कार्यप्रणाली को पारदर्शी रखना चाहिए एवं विदेशी धन अथवा स्वार्थसिद्धि के लिए दिए गए अनुदान के ग्रहण से आर्थिक निर्भरता को दूषित होने से बचाना चाहिए।

उक्त तीन पक्षों की चर्चा से स्पष्ट होता है की भारतीय परंपरा में सेवा एक सामाजिक गुण है और अनेकानेक संस्था स्वेच्छा पूर्वक शुद्ध अंतःकरण से इस मार्ग का अवलम्बन करते हैं। भारत के इतिहास में से १८९९ के प्लेग की महामारी की घटना और उसके निदान को आदर्श उदाहरण के रूप में प्रस्तुत किया गया। अभी के महामारी में भी गैर सरकारी संस्था के सराहनीय योगदान को प्रस्तुत किया गया। साथ हीं नकारात्मक उदाहरण को भी रखा गया ताकि हम उचित सुधार का मार्ग भी देख सकें। इन विचारों के साथ मैं अपनी लेखनी को विराम देता हूँ और उन सब को अभिनन्दन और आभार देता हूँ जिन्होंने इस कठिन समय में अपना अभिन्न योगदान दिया और यह आशा करता हूँ की उनकी प्रेरणा से उत्तरोत्तर सभी संस्था अधिकाधिक सेवा कार्य में संलग्न होंगे।

संदर्भ

  • Complete-Works / Volume 9 / Writings: Prose and Poems. Prabudha Bharata Vol 111; May 1, 2006
  • रक्‍तदान कर दूसरों की बचा रहे जिंदगी, समाजसेवा के लिए हमेशा रहते हैं तैयार — दैनिक जागरण ०८ मई २०२०
  • नीति आयोग के सीइ्रओ ने राहत उपायों में मदद के लिये गैर-सरकारी संगठनों को पत्र लिखा — नवभारत टाइम्स ०५ अप्रैल २०२०
  • कोरोना-काल में लुप्त हुए एनजीओ — हिन्दुस्थान समाचार ०७ मई २०२०
  • होटल व एनजीओ नहीं खोल रहे अपनी मुट्‌ठी — दैनिक भास्कर २९ मार्च २०२०

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