एक दिन रुद्रांश ऋषि दुर्वासा गोकुलमें पधारे।
ऋषि! आप? झुककर भगवती पौर्णमासीने प्रणाम किया।
आप यहाँ भगवती? परम शैव हैं आप… और शैवोंको तो शिवधाममें ही वास करना चाहिये,आप यहाँ कैसे? दुर्वासा ऋषिने पौर्णमासीसे चकित हो, प्रश्न किया था “और भगवती! मुझे स्मरण होता है जब आप काशीमें समाधिस्थ होती थीं निराकारके ध्यानमें आपका लीन हो जाना मुझे आनन्दित करता था। आपके भाई ऋषि सान्दीपनिसे मैं मिला था महाकालके मन्दिरमें वे हैं अनन्य शैव “काशी छोड़कर गये भी तो शिवधाम अवन्तिकामें‘‘ पर आप यहाँ क्यों?
प्रणाम मामाजी! पीछेसे आकर मनसुखने प्रणाम किया ऋषिको । मनसुख मामा ही कहता है जो भी ऋषि इसे मिलें। और ये तो तुम्हारा पुत्र है? दुर्वासाने जब मनसुखको देखा तो पूछा। जी, ऋषिवर! ये मेरा ही पुत्र है… पौर्णमासीने इतना ही कहा।
इसे ब्रह्मनिष्ठ बनातीं, ब्रह्मवेत्ता बनाना था इसे। ब्रह्मकुलका ये बालक है… कहाँ ले आयी हो तुम इसे और स्वयं भी! दुर्वासाको अच्छा नहीं लग रहा है पौर्णमासी और मनसुखका गोकुलमें रहना…
आप ‘गौरस’ आदि कुछ तो स्वीकार करें मेरी कुटियामें चलकर? पौर्णमासीने आग्रह किया। दुर्वासा भगवती पौर्णमासीकी बात मानकर उनकी कुटियामें चल तो दिये और कुछ गौदुग्धका पान भी किया, पर ‘‘वत्स ! ब्रह्मको जबतक नहीं जाना सब जानना व्यर्थ है। मनसुखके सिरमें हाथ रखते हुए दुर्वासाने कहा। भगवती पौर्णमासीके प्रति विशेष श्रद्धा रखते थे ऋषि दुर्वासा क्योंकि उस समय शायद ही कोई हो.. जो पूर्ण शिवानुरागिनी हो, अगर कोई थीं तो पौर्णमासी ही थीं। समाधि लग जाती इनकी तो वर्षों यूँ ही बीत जाते। इसलिये तो दुर्वासा आज पौर्णमासीके यहाँ पहुँच गये थे।
मनसुख! तुमने कालको जीत लिया है। सनकादिकोंकी तरह तुम भी हो। एक ही वय तुम्हारी है। तुम सिद्ध योगियों में से एक हो। फिर क्यों उस ब्रह्मानुभूतिको त्यागकर तुम यहाँ…?
मामाजी! ब्रह्म तो मेरा यहीं है। कल ही उसने चलना सीखा है। नहीं, नहीं, घुटवन चलना सीखा है। निराकार ही यहाँ नराकार हो गया है मामा जी! खूब किलकारियाँ मारता है। नन्हें-नन्हें पाँव पटकता है। जब इन आँखोंसे ही दिखायी पड़ रहा है तो कौन ध्यान करे और कौन आँखें बन्द करे?
हँसते हुए मनसुखने ये सारी बातें कह दी थीं। तो ब्रह्मको हमें नहीं दिखाओगे? ऋषिने भी मनसुखसे कह दिया। क्यों नहीं मामाजी! सबको सुलभ है वो यहाँ? ज्ञानियोंके ब्रह्मकी दुर्लभता नहीं है उसकी यहाँ, न आँखें बन्द करनी है आपको न ‘अहं ब्रह्मास्मि’ का अनुसन्धान बस देखना है नन्दके उस आँगनमें। वहीं खेलता है आपका ब्रह्म।
पौर्णमासी हँस रही हैं। दुर्वासा ऋषिने उठते हुए कहा, अब तो चलो नन्दके आँगनमें ही चलो देखते हैं तुम्हारे ब्रह्मको। ऐसा कहकर दुर्वासा ऋषि चल पड़े।
आगे-आगे मनसुख बड़े उत्साहसे चल रहा था। लाला! लाला! उधरसे दाऊ आ गये थे और कन्हैयाको पकड़कर कुछ कह रहे थे। अभी बोलना नहीं आता कन्हैयाको ना, हाँ, हत् बस ऐसे ही कुछ शब्द हैं, जो कन्हाई बोल लेता है चलो! उधर! उँगलीके इशारेसे बताया दाऊने। दाऊ भी तो छोटे ही हैं… पर हाँ ये बोल लेते हैं। नन्द-महलके बाहर जानेके लिये दाऊ कह रहे हैं कन्हैयाको। खुश हो गये कन्हैया किलकारियाँ मारने लगे तो दाऊने हाथ पकड़ लिया कन्हैयाका और लेकर चले पर अपनेको न सँभाल पानेके कारण कन्हैया गिर गये। गिर गये तो रोने लगे। दाऊने चुप कराया फिर धीरे से बोले–‘लाला! चल! उधर कन्हैया लगी चोटको फिर भूल गये और घुटवन – घुटवन आगे बढ़ने लगे। चाल तेज है दोनोंकी आज दोनोंने ही ये संकल्प कर लिया है कि देहरी पार करनी ही है।
आ ही गये जैसे-तैसे घुटनोंको छिल-छिलाके ये देहरीमें। अब देहरीसे नीचे उतरना है। दाऊने देखा, पर चंचलताकी पराकाष्ठा कन्हैया! वो तो नीचे उतर भी गये। पर नीचे गहरा है बहुत, दो फुट भी तो इनके लिये गहरा ही है। देहरीको पकड़ लिया ऊपर है, अब हाथ छोड़ें तो गिर पड़ेंगे। गिर पड़ेंगे तो चोट लगेगी। अब तो आ, ऊँ, जोरसे चिल्लाना शुरू किया कन्हैयाने। कन्हैयाके चिल्लानेसे डर गये दाऊ; क्योंकि यहाँ वही तो लाये थे कन्हैयाको। वे कहें चुप! मैं खींचता हूँ तुझे, पर तू चुप रह। समझ गये कन्हैया भी, वो चुप भी हो गये। दाऊने खींचना भी चाहा, पर फिर लटक गये कन्हैया देहरीमें।
“वत्स! ब्रह्मको जानना ही ब्राह्मणत्व है,” दुर्वासा समझाते हुए चल रहे थे। हँसा मनसुख और हँसते हुए रुक गया। वो देखिये, आपका ब्रह्म नन्दकी पौरीमें अटका हुआ है। दुर्वासाने देखा वे स्तब्ध रह गये। उनके नेत्र खुले के खुले रह गये। दिव्य नीलमणिके समान चमकता हुआ एक बालक है। सूर्य-चन्द्र जिसके प्रकाशके आगे कुछ नहीं हैं। उसका प्रकाश हजारों सूर्योंके समान है, पर शीतलता इतनी जितनी चन्द्रमामें भी नहीं है। लाल अधर, घुँघराले केश – ऐसा लग रहा है, जैसे मुखरूपी कमलमें सैकड़ों भौंरे घूम रहे हों। नन्हें-नन्हें हाथ, वक्षमें भृगु-चरण-चिह्न, छोटा-सा उदर, गम्भीर नाभि, छोटे-छोटे चरण जो लटके हैं। चरणों में चिह्न हैं – चक्र, शंख, गदा, पद्म, यव, मछली, षट्कोण। आहा! दुर्वासा ऋषिकी आँखें खुली -की – खुली रह गयीं। हाँ, यही तो है ब्रह्म, जो निराकार था, आज साकार होकर प्रकटा है। पर दुर्वासा उस समय चौंक गये। जब यह ब्रह्म रोने लगा और रोते हुए दाऊसे इशारेमें कहने लगा–‘मुझे ऊपर खींच’। दाऊ भी तो बालक ही हैं। पूरी ताकत लगाकर कन्हैयाको दाऊने खींचा। जैसे-तैसे खींच लिया ऊपर। ऋषि दुर्वासाको अब देहभान नहीं है… वो सब कुछ भूल चुके, बस उनके हृदयमें यही ‘बालकृष्ण’ अच्छे-से बस गये हैं अब।
ऋषि आनन्दमें डूबकर यही गा रहे थे। श्रुति जिसे पढ़नी हो, पढ़े, जिसे उपनिषद् पढ़ना हो वो भी पढ़े। जिसे निराकार ब्रह्मज्योतिमें अपना ध्यान लगाना हो लगाये। पर मैं तो इस ‘नन्ददेहरी’ को प्रणाम करता हूँ… जिसमें ब्रह्म अटक गया था दुनियाको उबारनेवाला स्वयं उबरनेके लिये याचना कर रहा था आहा! ये कहते हुए ऋषि दुर्वासा आनन्दित हो नाचते रहे, बृजरजको अपने शरीरमें लगाते रहे मनसुख ये देखकर बहुत प्रसन्न हुआ था।