Ekvastra

काम-क्रोधादि स्वभाव नहीं, विकार हैं

गीता-चिंतन

याद रखो -काम, क्रोध, लोभ आदि तुम्हारे स्वभाव नहीं हैं, विकार हैं। स्वभाव या प्रकृतिका परिवर्तन बहुत कठिन है, असम्भव-सा है; पर विकारोंका नाश तो प्रयत्नसाध्य है। इसीलिये भगवान्ने गीतामें “ज्ञानी भी अपनी प्रकृतिके अनुसार चेष्टा करता है, प्रकृतिका निग्रह कोई क्या करेगा”–कहा है; पर साथ ही काम-क्रोध, लोभको आत्माका पतन करनेवाले और नरकोंके त्रिविध द्वार बतलाकर उन्हें त्याग करनेके लिये कहा है। इससे सिद्ध है कि ब्राह्मण-क्षत्रियादि प्रकृतिका त्याग बहुत ही कठिन है, पर काम-क्रोधादि विकारोंका त्याग कठिन नहीं है।

याद रखो -काम-क्रोधादि विकार तभीतक तुमपर अधिकार जमाये हुए हैं, जबतक इन्हें बलवान् मानकर तुमने निर्बलतापूर्वक इनकी अधीनता स्वीकार कर रखी है। जिस घड़ी तुम अपने स्वरूपको सँभालोगे और अपने नित्य-संगी परम सुहृद् भगवान्के अमोघ बलपर इन्हें ललकारोगे, उसी घड़ी ये तुम्हारे गुलाम बन जायँगे और जी छुड़ाकर भागनेका अवसर हूँढ़ने लगेंगे।

याद रखो -ये विकार तो दूर रहे, ये जिनमें अपना अड्डा जमाकर रहते हैं और जहाँ अपना साम्राज्य–विस्तार किया करते हैं, वे इन्द्रिय-मन भी तुम्हारे अनुचर हैं। तुम्हारी आज्ञाका अनुसरण करनेवाले हैं, पर तुमने उनको बड़ा प्रबल मानकर अपनेको उनका गुलाम बना रखा है, इसीसे वे तुम्हें इच्छानुसार नचाते और दुर्गतिके गर्तमें गिराते हैं।

याद रखो -जितने भी बुरे कर्म होते हैं, उनमें ये कामक्रोध आदि विकार ही प्रधान कारण हैं। ये ही तुम्हारे प्रबल शत्रु हैं, जिनको तुमने अपने अंदर बसा ही नहीं रखा है, बल्कि उनके पालन-पोषण और संरक्षणमें भ्रमवश तुम गौरव तथा सुखका अनुभव करते हो।

याद रखो -ये काम, क्रोध, लोभ और इनके साथीसंगी मान, अभिमान, दर्प, दम्भ, मोह, कपट, असत्य और हिंसा आदि दोष जबतक मानव-जीवनको कलुषित करते रहेंगे, तबतक उसका उद्धार होना अत्यन्त कठिन है; पर ये ऐसे प्रबल हैं कि प्रयत्न करनेपर भी सहजमें जाना नहीं चाहते !

याद रखो -ये कितने ही प्रबल क्यों न हों-आत्माके तथा भगवान्के बलके सामने इनका बल कोई भी स्थान नहीं रखता। जैसे सूर्याभाससे ही अन्धकारका नाश होने लगता है, वैसे ही भगवान्की शक्तिके प्रकाशका अरुणोदय इन्हें तत्काल नाश कर डालता है। उसके सामने ये खड़े भी नहीं रह सकते।

याद रखो -आत्मा तो तुम्हारा स्वरूप ही है और भगवान् उस आत्माके भी आत्मा हैं। आत्माके साथ उनकी सजातीयता तो है ही, एकात्मता भी है। अनुभूति होनेभरकी देर है, फिर तो इन विकारोंकी सत्ता वैसी ही रह जायगी, जैसी जागनेके बाद स्वप्नके पदार्थोकी रह जाती है।

श्रोत: गीता चिंतन, हनुमान प्रसाद पोद्दार

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